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भटका हुआ एक मुसाफिर

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  भटका हुआ एक मुसाफिर   दिशा हीन हर राह परि है ,   और भटकता एक मुसाफ़िर।   बढ़ रहा मंजिल पाने को ,   मुड़- मुड़ कर देखता है फिर-फिर।     दुनिया की नज़रों मे वह ,   भुला , भटका , बेकार रहा है।   पर उसकी आंखों मे तो ,   सबके हीत हरदम प्यार रहा है।     सपनों की दुनिया मे वह तो ,   ज़मी पे चाँद सितारे लाता।   पर सपनों के बाहर वह ,   केवल दु:ख़ को ही है पाता।     क्या विचित्र लेखनी है विधि की ,   उसका माँ तक पर अधिकार नहीं है।   विधि ने छाया दिया है उसको ,   पर उसका घर द्वार नहीं है।     जो जन्मदायिनी माता है ,   वह जिसने दूध पिलाया है।   उसकी ममता भी बट जाती ,   यह विधि की कैसी माया है।     नीज़ पुर-परिजन को त्याग वह ,   घर-द्वार छोर कर चला हुआ।   बढ़ता केवल उम्मीद लिये ,   जो हुआ सभी कुछ भला हुआ।     सपनों मे विश्व विजेता वह ,   मन के द्वारे पर हारा है।   वह जीता बस उम्मीद लिए ,   कि केवल " राम" सहारा है।     लोग बोलते भाग्य लेखनी ,   नर के हांथों मे होता है।   कुकर्मों के फल को हर ,   नर अपने आंसु से धोता है